लोक-संस्कृति का महान उत्सव है सतुआन और जुड़ शीतल

Satuan Parv 2024 : सतुआन लोक-संस्कृति का ऐसा अनोखा पर्व है, जो धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है. सतुआन हमारे स्वस्थ जीवन का एक सांस्कृतिक संकेत है. इसमें हम सौभाग्य और कामना पूर्ति के लिए सहज भाव से प्रकृति की पूजा-आराधना करते हैं.

डॉ मयंक मुरारी

भारतीय जीवन में प्रकृति, उत्सव और समाज की एकात्मकता का अद्भुत संयोजन है. इस संयोजन के साथ हमारा सामाजिक जीवन सालोंभर सतत् गतिमान रहता है. यहां सर्वत्र प्रकृति, संस्कृति और सृष्टि संग अनुष्ठानों की महत्ता होती है. सालोंभर चलनेवाले उत्सव लोकचेतना के रंग और रस हैं, जहां परंपराओं की महत्ता अनुष्ठान से अधिक है. यहां परंपराओं के संग पूजा का महत्व होता है. प्रकृति और परमात्मा से जुड़ाव का यह देशज तौर-तरीका है. हरेक साल अप्रैल के चौदहवीं या पंद्रहवीं तिथि को लोक-संस्कृति का पर्व सतुआन मनाया जाता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार संग नेपाल के तराई क्षेत्र में इस उत्सव की बेहद धूम होती है. बिहार और नेपाल के मैथिली भाषी क्षेत्र मे यह जुड़ शीतल तो शेष जगह सतुआन नाम से प्रचलित है. इसे जुड़ शीतल, टटका बासी, सतुआ संक्रांति, बिसुआ आदि से भी जाना जाता है. हालांकि सतुआन अत्यधिक प्रचलित है.

सतुआन को लेकर कई कहानियां हैं प्रचलित

सतुआ नवीन फसल का भी पर्व है. सतुआन में खेतों से नये कटे अन्न जैसे- चना, जौ आदि, आम का टिकोरा, प्याज, हरी मिर्च का प्रयोग होता है. चने का सतुआ अकेले भी प्रयोग होता है और जौ आदि के सतुआ के साथ मिश्रित भी करके. सात अनाजों का सतुआ- सतंजा भी प्रचलित है. सतुआन वैशाख संक्रांति को प्रतिवर्ष आता है, तब सूर्य मीन से मेष राशि में प्रवेश करते हैं. सतुआन को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं. यह अनुष्ठान भारतीय सभ्यता के निरंतरता को दिखाता है.
वैदिक काल में अपाला नाम की एक विदुषी महिला का उल्लेख मिलता है, जो सफेद दाग जैसी किसी बीमारी से ग्रस्त थी. अपाला इस बीमारी से मुक्ति के लिए इंद्र की तपस्या की. कहते हैं अपाला ने सत्तू का भोग लगाया और ईख का रस चढ़ाया. इंद्र यह भोग पाकर प्रसन्न हुए और अपाला को रोग मुक्त कर दिया. आज भी रोगी को ठीक होने के बाद जब अनाज देने की शुरुआत की जाती है, तो प्राय: पतली खिचड़ी के बाद ठोस सत्तू के सेवन का विकल्प दिया जाता है.

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एक उत्सव मगर हर जगह अलग-अलग रीति-रिवाज

मेष संक्रांति को भारत में सतुआ संक्रांति और मकर संक्रांति को खिचड़ी कहा जाता है. कृषि, जलवायु और समाज के स्वभाव के अनुसार सर्वसुलभ भोज्य पदार्थ खिचड़ी और सतुआ के आधार पर उत्सव का नामाकरण से भारतीय जीवन की सनातन और शाश्वत स्वभाव का पता चलता है. बंगाल में इस दिन को ‘नाबा वैशाख’ या ‘पोइला वैशाख’, बिहार में ‘सतुआन’, केरल में ‘विशु’, असम में ‘बिहू’, पंजाब में ‘वैशाखी’, मिथिलांचल में ‘सतुआनि’ और ‘जुड़ शीतल’ के नाम से मनाया जाता है. बंगाल के लोग संक्रांति के एक दिन पहले ‘पांतो भात’ करते हैं, यानी रात में भात बनाकर रख देते हैं और सुबह उस भात में नमक-मिर्च मिलाकर खाते हैं.
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, यह एक पुण्यकाल है. इस संक्रांति काल में जब सूर्य और चंद्र रश्मियों में अमृत तुल्य आरोग्यवर्धक तत्व होते हैं. सूर्य की किरणें विषवत् रेखा से कर्क यानी उत्तर की ओर बढ़ने लगती हैं, तो उसकी तीव्रता महसूस होती है. इसलिए रात्रि को मिट्टी के घड़ों में जल भर कर रखा जाता है. वहीं आम पल्लवों से इनके मुख को ढका जाता है. रात्रि को चावल भात बना उसे पानी मे भींगो दिया जाता है. जबकि कुछ स्थानों पर कढ़ी-बड़े इत्यादि बनाने का भी चलन है. अगले दिन कलश जल का छिड़काव आम्र पल्लव द्वारा घर के हर कोने में किया जाता है. वहीं, घर के बड़े-बुजुर्ग इस जल को परिवार जनों पर छिड़क उनके मंगलमय भविष्य की कामना करते हैं. इस दौरान वे लोक बोली में प्रफुल्लित प्रसन्नचित और परिपूर्ण रहने की प्रार्थना भी करते हैं. जुड़ शीतल का अर्थ ही है- शांत संतुष्ट और संपूर्ण. इस दौरान कलश जल का छिड़काव आस-पड़ोस के मार्ग और गोशाला में भी करते हैं. जबकि शेष जल का उपयोग घर के आसपास लगे पौधों की सिंचाई में करते हैं. यह उपक्रम समस्त प्रकृति के मंगल कल्याण हेतु किया जाता है. उत्सव के दिन रसोई घर को धोया-लीपा जाता है. इस दिन कुछ घरों में रसोई बनता है, अन्यथा पूर्व संध्या बने भोजन और चढ़ाये प्रसाद से काम चलाया जाता है.
वहीं, दक्षिण भारत में 14-15 अप्रैल या सूर्य के राशि परिवर्तन दिवस को विषु कानी पर्व के तौर पर मनाते हैं. यह पर्व भगवान विष्णु को समर्पित है और दक्षिण भारत में नव वर्ष का प्रतीक है. दरअसल, विषु कानी पर्व कृषि आधारित पर्व है, जिसमें खेतों में बुआई का उत्सव मनाते हैं.

गर्मी के आ जाने की घोषणा करता है सतुआन

उत्तर भारत की लोक संस्कृति में यह प्रकृति से जुड़ाव का पर्व है. अब यह धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है. आज से कुछ दशक पूर्व सत्तू को गठरी में बांधकर लंबी यात्रा पर ले जाया जाता था. ठेंठ देहातों में यह अभी भी जीवित है. शहरों में लोग सत्तू भूल गये, लिट्टी अभी स्मरण है. सतुआन के दिन अब औपचारिकता निभायी जाती है.आम की बौरियां, कैरियों को पीसकर चटनी बनाना और साथ में सत्तू घोलकर पहले सूर्य देव को चढ़ाना और फिर प्रसाद में ग्रहण किया जाता है. सत्तू का स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्व है. इसे पीने से स्मरण शक्ति बढ़ती है, पढ़ने में मन लगता है. पेट ठंडा रहता है. ऐसे में यह दिव्य पर्व सतुआन, जो गर्मी के आ जाने की घोषणा करता है और बताता है कि अब मौसम तेजी से गर्म होगा, आने वाले दिनों में नौतपा होने वाला है, जब खेतों की मिट्टी बिल्कुल सूखकर कड़ी हो जायेगी. मनुष्य जब गर्मी से त्रस्त हो जायेगा, तो ऐसे में सत्तू ही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है, जो शीतलता दे पायेगा.

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Sunil Kumar Dhangadamajhi

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