लोगों को लुभाते हैं सड़कों पर बिकने वाले खानों का लजीज स्वाद

Life Style : एक जमाना था, जब खाने के नायाब जायकों का आनंद लेने के लिए नामी-गिरामी रेस्तरां या पांच तारा छाप होटलों का जिक्र होता था. कोई अपनी दाल के लिए मशहूर था, तो कोई महकती बिरयानी के लिए, खासकर विदेशी जायकों के लिए. चीनी, थाई, इतालवी आदि व्यंजन, जो घर पर नहीं बनाये जा सकते थे, इन्हीं जगहों में मिलते थे. मगर ये सब महानगरों तक सीमित थे और वहां भी हर किसी की पहुंच इन तक नहीं थी. शायद इसी कारण क्रमश: सड़क छाप खाना लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा, स्थानीय निवासी या दो-चार दिन के मेहमान पर्यटक सभी के लिये स्ट्रीट फूड यानी सड़क छाप खाने आकर्षक बन गये.

सड़कों पर लजीज स्वाद

दिल्ली में आने वाले या यहां रहने वाले के लिए शहर के कई हिस्सों में सड़कों, गलियों में अलग-अलग जायकों का अंबार लगा था. पुरानी दिल्ली में पराठे वाली गली थी और पास ही में कूड़ेमल की कुल्फी. नटराज के सामने नरम दही भल्ले मिलते थे, तो मिठाई के लिए (अभी हाल में बंद हुई) शाही घंटे वाले हलवाई की दुकान थी. एक और सिंधी हलवाई कराची या बंबई हलवा बेचते थे, तो दूसरी तरफ लगभग सौ साल पुरानी बंगाली मिठाइयों की दुकान अन्नपूर्णा की छेने की मिठाई का मुकाबला कोई नहीं कर सकता था. जामा मस्जिद की गलियों में श्री भवन के हलवे आज दुनियाभर में मशहूर हो चुके हैं और इन्हें सड़क छाप जायकों में शुमार करना नादानी ही समझा जा सकता है.

स्ट्रीट फूड

ऐसा नहीं कि दिल्ली की गलियों के जायके सिर्फ चाट या मिठाइयों तक ही सीमित हैं. जिन लोगों को मांसाहार रूचता है, उनके लिए किस्म-किस्म के कबाब, शामी और सीख, तंदूरी और तले मुर्ग, निहारी और स्टु, बर्रा कबाब आदि जगह-जगह ललचाते हैं. कुछ दशक पहले खोमचे और ठेलों से शुरूआत करने वाले आज रेस्तरां में तब्दील हो चुके हैं, मसलन करीम और न्यू जवाहर, लेकिन इनके जायके वही पुराने वाले हैं. कनॉट प्लेस के बाहरी गोल चक्कर में काके दा, नेशनल और ग्लोरी जैसे ढाबे हैं, जो शंकर मार्केट से लेकर बंगाली मार्केट के निकट आप कहीं भी बेहतरीन टिक्की या पापड़ी चाट का सुख भोग सकते हैं. राजधानी में शायद ही कोई इलाका होगा, जहां आपको भारत के विभिन्न सूबों के जायके चखने का मौका ना मिले.

Delicious taste on streets

बस्ती निजामुद्दीन, जो शाहजहानाबाद वाली पुरानी दिल्ली से भी काफी पुरानी बसाहट है, में एक साथ कश्मीरी, बिहारी-पूर्वांचली और अफगान जायकों की नुमाइश लगती है. इधर लाजपत नगर में दर्जनों ढाबेनुमा होटल अफगानी और ईरानी व्यंजन परोसते हैं. दिल्ली में ही नहीं, पूरे एनसीआर में नेपाल और पूर्वोतर के मोमो बिहार के लिट्टी-चोखा और चाऊमीन आदि दिल्ली के पारंपरिक कबाबों को विस्थापित कर चुके हैं.

सड़कों-गलियों के जायकों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि हर छोटे या बड़े शहर की खाऊ गलियों के खाने के अपने-अपने निराले जायके दूसरी जगह की सड़कों के जायकों को लगातार चुनौती देते रहते हैं. बंबई में भेल-पूरी, पाव भाजी और पाव बड़ा का जलवा है, तो कोलकाता में काठी रोल, आलू चॉप, घुघनी का. चेन्नई में दाल बड़ा, तो इंदौर में मकई की खीस से लेकर तले हुए गिराडु. अक्सर एक शहर के सड़कों के खाने अनायास दूसरे शहर में घुस जाते हैं और वहां के गलियों के खाने में अपनी जगह बना लेते हैं. इतना ही नहीं, आज कई गलियों के ये खाने बड़े-बड़े रेस्तरां के मेन्यू में भी अपनी जगह बना चुके हैं.

Sunil Kumar Dhangadamajhi

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