है प्रलंबित
धूप में
दीर्घश्वास
उनके जीने की चिंता ।
अस्वाभाविक जीवन में
टाइमपास के लिए
कितनी हैं घटनाएं ।
उसे देखा जिस दिन से
ऐसा लग रहा है
चमकीला है
रूप बाहर
अंदर है घनीभूत
दुःख के बादल ।
✒️मूल ओड़िया: प्रफुल्ल चंद्र पाढ़ी
✍🏾अनुवाद : ज्योति शंकर पण्डा